हे दिव्य स्वामी, वर दे कि हमारे लिए यह दिन, तेरे विधान के प्रति अधिक पूर्ण उत्सर्ग की ओर उद्घाटन हो, तेरे कर्म के प्रति अपनी अधिक सर्वांगीण भेंट हो, अपनी अधिक पूर्ण विस्मृति, अधिक महान आलोक, शुद्धतर प्रेम हो। वर दे कि तेरे साथ सदा-सर्वदा बढ़ते हुए सायुज्य में हम अधिकाधिक एक होते जायें ताकि हम तेरे योग्य सेवक बन सकें। हमारे अंदर से समस्त अहंकार और तुच्छ घमंड, समस्त लोभ और अंधकार को दूर कर दे ताकि तेरे दिव्य प्रेम से प्रज्वलित होकर, हम जगत में तेरी मशालें बन सकें।
संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…