सष्टि का दुःख-दर्द भगवान् स्वयं अपने ऊपर ले लेते हैं।


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

माँ, दुःख-कष्ट अज्ञान और यन्त्रणा से आते हैं। भगवती माता -सावित्री में भगवती माता-अपने बच्चों के लिए जो दुःख-कष्ट झेलती हैं वह किस प्रकार का है?

क्योंकि वे उनकी प्रकृति में भाग लेती हैं। उनकी प्रकृति में भाग लेने के लिए ही वे धरती पर उतरी हैं। क्योंकि अगर वे उनकी प्रकृति में भाग न लें तो वे उन्हें आगे न बढ़ा सकेंगी। अगर वे अपनी परम चेतना में बनी रहें जहाँ कोई दुःख नहीं है, अपने परम ज्ञान और अपनी परम चेतना में बनी रहें तो मनुष्यों के साथ उनका कोई सम्पर्क ही न होगा। इसीलिए उन्हें मानव-चेतना और मानव-रूप धारण करना पड़ता है, ताकि वे उनके साथ सम्पर्क स्थापित कर सकें। हाँ, वे भूलती नहीं। उन्होंने उनकी चेतना अपना तो ली है, लेकिन उनका सम्बन्ध अपनी वास्तविक, परम चेतना के साथ बना रहता है। और इस तरह वे दोनों को मिला कर, जो लोग उस दूसरी चेतना में हैं उनसे सचेतन प्रगति करवा सकती हैं। लेकिन अगर वे मानव-चेतना को न अपनाती, अगर वे उनके दुःख में दुःखी न होती तो वे उनकी सहायता न कर पातीं। उनका दुःख अज्ञान का दुःख नहीं है: यह तादात्म्य का दुःख है। यह इसलिए है, क्योंकि उन्होंने वही स्पन्दन स्वीकार किये हैं जो उनमें होते हैं, ताकि वे उनके सम्पर्क में आ सकें और उन्हें उनकी वर्तमान स्थिति में से बाहर निकाल सकें। अगर वे लोगों के साथ सम्पर्क न रखें तो उन्हें कोई भी अनुभव न कर सकेगा, कोई उनकी ज्योति को न सह सकेगा…। यह सब प्रकार के रूपों में, सब प्रकार के धर्मों में कहा गया है। उन्होंने बहुधा भागवत ‘बलिदान’ की बात कही है। एक दृष्टिकोण से यह सत्य है। यह स्वेच्छा से बलिदान है, पर है सत्य : पूर्ण चेतना, पूर्ण आनन्द, पूर्ण शक्ति को तज कर बाह्य जगत् के अज्ञान को स्वीकार करना ताकि उसे अज्ञान में से निकाल सकें। अगर इस अवस्था को न स्वीकार किया जाता तो उसके साथ कोई सम्पर्क ही न होता। कोई सम्बन्ध न जुड़ता। अवतारों के आने का यही कारण है। अन्यथा उनकी ज़रूरत न होती। अगर भागवत चेतना और भागवत शक्ति सीधे अपनी पूर्णता के स्थान या अवस्था से कार्य कर सकतीं, अगर वे जड़ द्रव्य पर वहाँ से सीधी क्रिया कर सकतीं और उसका रूपान्तर कर पाती तो मनुष्य जैसा शरीर धारण करने की ज़रूरत ही न होती। तब ‘सत्य’ के लोक से पूर्ण चेतना द्वारा चेतना पर क्रिया करना ही पर्याप्त होता। वस्तुतः शायद करवानी हो, उसे तेजी से आगे बढ़ाना हो तो मानव-स्वभाव को स्वीकार करना ज़रूरी हो जाता है। मानव-शरीर धारण करने से, अंशतः मानवस्वभाव स्वीकारना ज़रूरी हो जाता है। हाँ, अपनी चेतना खोने और ‘सत्य’ के साथ सम्पर्क खोने की जगह, अवतार इस चेतना को बनाये रखता है, इस ‘सत्य’ को बनाये रखता है और इन दोनों को जोड़ कर ही वह रूपान्तर का कीमिया पैदा कर सकता है। लेकिन अगर उसने जड़ पदार्थ को न छुआ होता तो कुछ भी न कर पाता।

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५३


0 Comments