(श्रीमाँ श्रीअरविंद से २९ मार्च १९१४ को पहली बार मिली थीं और यह प्रार्थना उन्होने १ अप्रैल १९१४ को लिखी थी। )
मुझे लगता है कि हम तेरे मंदिर के गर्भगृह के हृदय में जा पहुंचे हैं और तेरी ही इच्छा के बारे में अभिज्ञ हो गये हैं। मेरे अंदर एक महान आनंद, एक गहरी शांति का शासन है । मेरी सारी आन्तरिक रचनाएँ एक व्यर्थ स्वप्न की तरह गायब हो गयी हैं और अब मैं अपने-आपको तेरी विशालता के आगे किसी चौखटे या पद्धति के बिना, एक सत्ता के रूप में पाती हूँ जिसका अभी व्यष्टिकरण नहीं हुआ है। अपने बाहरी रूप में सारा अतीत मुझे हास्यापाद रूप से मनमाना दीखता है, फिर भी मैं जानती हूँ कि अपने समय में वह उपयोगी था।
लेकिन अब सब कुछ बदल गया है : एक नयी स्थिति शुरू हो गयी है ।
संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…