(अधिकतर साधक) अहंकारी होते हैं और वे अपने अहंभाव को अनुभव या स्वीकार नहीं करते। उनकी साधना में भी ‘मैं’ का भाव हमेशा प्रत्यक्ष रूप से रहता है, –मेरी साधना, मेरी प्रगति, मेरी हर चीज। इसका उपचार है, भगवान् का निरन्तर चिन्तन, अपना नहीं। कर्म, क्रिया, साधना को भगवान् के लिए करना। यह नहीं सोचना कि यह अथवा वह किस प्रकार मुझे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित करता है। किसी चीज पर अधिकार नहीं जमाना बल्कि सब कुछ भगवान् के सुपुर्द कर देना। इसे पूरी तरह और सच्चाई से करने में समय लगेगा, किन्तु यही समुचित मार्ग है।

संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र 

शेयर कीजिये

नए आलेख

उदार विचार

मैंने अभी कहा था कि हम अपने बारे में बड़े उदार विचार रखते हैं और…

% दिन पहले

शुद्धि मुक्ति की शर्त है

शुद्धि मुक्ति की शर्त है। समस्त शुद्धीकरण एक छुटकारा है, एक उद्धार है; क्योंकि यह…

% दिन पहले

श्रीअरविंद का प्रकाश

मैं मन में श्रीअरविंद के प्रकाश को कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? अगर तुम…

% दिन पहले

भक्तिमार्ग का प्रथम पग

...पूजा भक्तिमार्ग का प्रथम पग मात्र है। जहां बाह्य पुजा आंतरिक आराधना में परिवर्तित हो…

% दिन पहले

क्या होगा

एक परम चेतना है जो अभिव्यक्ति पर शासन करती हैं। निश्चय ही उसकी बुद्धि हमारी…

% दिन पहले

प्रगति का अंदाज़

मधुर मां, हम यह कैसे जान सकते हैं कि हम व्यक्तिगत और सामुदायिक रूप में…

% दिन पहले