हे प्रभु ! आज प्रातःकाल जैसे ही मैंने इस प्रारंभ होने वाले मास की ओर दृष्टि डाली और अपने-आपसे पूछा कि तेरी सेवा करनेका सर्वोत्तम साधन क्या होगा, वैसे ही मैंने धीमी आंतरिक ध्वनि को मानों नीरवता में अस्फुट गुंजन की तरह सुना। इसने मुझसे कहा : “देखो, बाह्य अवस्थाओं- का महत्त्व कितना कम होता है ! तुम ‘सत्य’-विषयक अपनी कल्पना को चरितार्थ करने के लिये क्यों आयासपूर्ण परिश्रम करती हो तथा अपने- आपको कठोर बनाती हो। अधिक नमनशील बनो, अधिक विश्वासपूर्ण बनो। तुम्हारा एकमात्र कर्तव्य है किसी कारण भी अपने-आपको व्याकुल न होने देना। शुभ काम करनेके लिये चिंतित होने से वैसे ही बुरे परिणाम निकलते हैं जैसे कि बुरी नीयत से। ‘सत्य-सेवा’ गंभीर जल जैसी शांत अवस्थामें ही संभव हो सकती है।”
सन्दर्भ : प्रार्थना और ध्यान
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…