उनके दुःख-दर्द से तीव्र रूप से पीड़ित होकर मैं तेरी ओर मुड़ी और उसका उपचार करने के लिए मैंने उस दिव्य प्रेम का कुछ भाग उंडेलने की कोशिश की जो समस्त शान्ति और सुख का उत्स है। हमें दुःख-दर्द से भागना न चाहिये और न ही उससे प्रेम करना या उसे बढ़ावा देना चाहिये।
हमें सीखना चाहिये कि कैसे उसके अन्दर इतनी पर्याप्त गहराई में जाया जाये कि उसे एक ऐसे बलशाली उत्तोलक में बदला जा सके जो हमारे
लिए शाश्वत चेतना के दरवाजों को खोलकर, तेरे अपरिवर्तनशील एकत्व की निरभ्रता में प्रवेश करा सके।

निश्चय ही शरीरों के पृथक् होने पर यह संवेदनशील और भौतिक आसक्ति, जो बिछुड़ने की पीड़ा पैदा करती है, यह एक दृष्टिकोण से बचकानी है, जब हम अपने बाहरी रूपों की अस्थिरता और तेरे तात्त्विक एकत्व की वास्तविकता के बारे में सोचते हैं; लेकिन दूसरी ओर, क्या यह आसक्ति, यह व्यक्तिगत लगाव, मनुष्यों के अन्दर-बाह्य रूप से जहां तक हो सके-उस आधारभूत एकता का अनुभव करने के लिए प्रयास नहीं है जिसकी ओर वे बिना जाने ही आगे बढ़ते रहते हैं? और ठीक उसी कारण बिछोह द्वारा लाया गया यह दुःख-दर्द, इस बाहरी चेतना का अतिक्रमण करने के लिए क्या बहुत अधिक प्रभावकारी साधनों में से एक नहीं है, इस बाहरी लगाव के स्थान पर तेरे शाश्वत एकत्व के सम्पूर्ण अनुभव को लाने का साधन नहीं है?

मैं उन सबके लिए यही चाहती थी; मैं उन सबके लिए तीव्रता के साथ इसी चीज की इच्छा करती थी और इसीलिए, तेरी विजय के बारे में आश्वस्त होकर, तेरी सफलता के बारे में निश्चित होकर मैंने उनके दुःख की बात तुझे बतलायी ताकि तू उसे आलोकित करके स्वस्थ कर सके।

प्रभो, वर दे कि स्नेह और कोमलता का यह समस्त सौन्दर्य महिमामय ज्ञान में रूपान्तरित हो जाये।

वर दे कि हर चीज में से सर्वोत्तम का आविर्भाव हो और तेरी सुखमय शान्ति का समस्त पृथ्वी पर राज्य हो।

जेनेवा, ६ मार्च १९१४

सन्दर्भ : प्रार्थना और ध्यान 

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