सागर के समान अपनी करुणा औ’ मन्दिर की-सी नीरवता को लेकर
उसकी आन्तर सहायता, सबके ही लिए द्वार अब दीव का खोल रही थी ;
उसके अन्तरतम का प्रेम निराला इस सारी जगति से भी विस्तृत था,
उसके एक अकेले अन्तर में ही यह सारा जग आश्रय ले सकता था ।
संदर्भ : सावित्री
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…