सागर के समान अपनी करुणा औ’ मन्दिर की-सी नीरवता को लेकर
उसकी आन्तर सहायता, सबके ही लिए द्वार अब दीव का खोल रही थी ;
उसके अन्तरतम का प्रेम निराला इस सारी जगति से भी विस्तृत था,
उसके एक अकेले अन्तर में ही यह सारा जग आश्रय ले सकता था ।
संदर्भ : सावित्री
सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को…
प्रेम और स्नेह की प्यास मानव आवश्यकता है, परंतु वह तभी शांत हो सकती है…
पत्थर अनिश्चित काल तक शक्तियों को सञ्चित रख सकता है। ऐसे पत्थर हैं जो सम्पर्क की…