श्रद्धा, भगवान् के ऊपर निर्भरता, भागवत शक्ति के प्रति आत्म-समर्पण और आत्मदान-ये सब आवश्यक और अनिवार्य हैं। परन्तु भगवान् के ऊपर निर्भर रहने के बहाने आलस्य और दुर्बलता को नहीं आने देना चाहिये तथा जो चीजें भागवत सत्य के मार्ग में बाधक होती हैं उनका निरन्तर
त्याग करते रहना चाहिये। भगवान् के प्रति आत्मसमर्पण को, अपनी ही वासनाओं तथा निम्नतर प्रवृत्तियों के प्रति या अपने अहंकार या अज्ञान और अन्धकार की किसी शक्ति के प्रति—जो कि भगवान् का मिथ्या रूप धारण करके आती है-आत्मसमर्पण करने का एक बहाना, एक आवरण
या एक अवसर नहीं बना देना चाहिये।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
तुम जिस चरित्र-दोष की बात कहते हो वह सर्वसामान्य है और मानव प्रकृति में प्रायः सर्वत्र…
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…