आध्यात्मिक चेतना एक नवीन चेतना है जिसे विकसित होना है और जो विकसित होती आ रही है। …परन्तु ज्योति, शान्ति और आनन्द की इस महत्तर चेतना को यदि प्राप्त करना हो तो यह कार्य तर्क-वितर्क या सन्देहवाद के द्वारा नहीं किया जा सकता; सन्देहवाद तो बस उन्हीं चीजों का आश्रय लेगा जो कि हैं और यह कहेगा कि “यह तो असम्भव है; जो भूतकाल में नहीं हुआ है वह भविष्य में भी नहीं होगा, जो चीज अब तक इतने अपूर्ण रूप में उपलब्ध हुई है वह इससे अच्छे रूप में भविष्य में नहीं उपलब्ध हो सकती।” सच पूछा जाये तो आवश्यकता है एक विश्वास की, एक संकल्प की अथवा कम-से-कम एक सतत आकांक्षा और अभीप्सा की इस भावना की कि बस यही और एकमात्र यही चीज मुझे सन्तुष्ट कर सकती है और फिर उसकी ओर जाने के एक प्रबल प्रयास की जो तब तक बन्द न हो जब तक कि वह कार्य पूरा न हो जाये। यही कारण है कि सन्देहवाद और अस्वीकृति का भाव रास्ते में रोड़े अटकाता है, क्योंकि ये दोनों उन अवस्थाओं के निर्माण के विरुद्ध खड़े हो जाते हैं जिनमें आध्यात्मिक अनुभूति प्रकट हो सकती है।

संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र 

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