जैसे ही मनुष्य को यह विश्वास हो जाये कि एक जीवन्त और वास्तविक ‘सत्य’ इस यथार्थ जगत् में व्यक्त होने की कोशिश में है तो उसके लिए जिस एकमात्र चीज का महत्त्व और मूल्य रह जाता है वह है, इस सत्य के साथ स्वयं को एकस्वर करना, जितनी पूर्णता से हो सके उसके साथ तादात्म्य साधना, केवल उसे अभिव्यक्त करने वाले एक यन्त्र के सिवा कुछ न होना, उसे अधिकाधिक जीता-जागता मूर्त रूप देते जाना, ताकि वह उत्तरोत्तर पूर्णता के साथ आविर्भूत हो सके। सभी मत, सभी सिद्धान्त और सभी प्रणालियां सत्य को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य के अनुपात में कम या अधिक अच्छी हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति इस पथ पर आगे बढ़ता है, अगर वह ‘अज्ञान’ की सभी सीमाओं के पार चला जाये, तो उसे पता चलता है कि इस अभिव्यक्ति की समग्रता, इसकी सम्पूर्णता, सर्वांगीणता सत्य के आविर्भाव के लिए आवश्यक है, कुछ भी त्याज्य नहीं, किसी का भी कम या ज्यादा महत्त्व नहीं है। एक ही चीज जो आवश्यक दिखती है वह है, सभी चीजों का सामञ्जस्य जो हर चीज को यथास्थान, बाकी सबके साथ सच्चे सम्बन्ध में रख दे, ताकि पूर्ण ‘ऐक्य’ समन्वयकारी तरीके से प्रकट हो सके।
यदि कोई इस स्तर से नीचे उतरता है तो मैं कहूंगी कि अभी वह कुछ नहीं समझता और सभी तर्क-वितर्क सच्चे मूल्यों को हर लेने वाली संकीर्णता और सीमाओं में समान रूप से अच्छे हैं।
सबके साथ समन्वय रखते हए हर चीज का अपना स्थान है। और तब मनुष्य समझना और उसके अनुसार जीना आरम्भ कर सकता है।
सन्दर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५७-१९५८
श्रीअरविंद हमसे कहते हैं कि सभी परिस्थितियों में प्रेम को विकीरत करते रहना ही देवत्व…
... सामान्य व्यक्ति में ऐसी बहुत-से चीज़ें रहती हैं, जिनके बारे में वह सचेतन नहीं…
भगवान मुझसे क्या चाहते हैं ? वे चाहते हैं कि पहले तुम अपने-आपको पा लो,…
सूर्यालोकित पथ का ऐसे लोग ही अनुसरण कर सकते हैं जिनमें समर्पण की साधना करने…
एक चीज़ के बारे में तुम निश्चित हो सकते हो - तुम्हारा भविष्य तुम्हारें ही…