युग बदलते हैं और परिस्थितियों में परिवर्तन के साथ नए आदर्शों और नए मंत्रों की आवश्यकता होती है। प्रभु पुनः अवतार लेते हैं और युग की मांग के अनुरूप शक्तिपूर्ण मंत्र देते हैं।
मद्रास के प्रसिद्ध बैरिस्टर श्री दुराईस्वामी श्रीअरविंद के एक विश्वस्त शिष्य थे। सन १९३३ में उनको दो पुत्रों का उपनयन संस्कार हुआ। उन्होने श्रीअरविंद से इस अवसर के लिए एक संदेश मांगा। प्रत्युत्तर में श्रीअरविंद ने उस संस्कार के लिए अपना गायत्री मंत्र रच कर भेज दिया।
यह महान मंत्र है –
तत्सवितुर्वरं रूपं ज्योतिः परस्य धीमहि |
यन्नः सत्येन दीपयेत् ||“Om Tat savitur varam rūpam jyotiḥ parasya dhīmahi, yannaḥ satyena dīpayet”
“आओ हम ध्यान करें सावित्री के सबसे शुभ (श्रेष्ठतम) रूप पर, ‘परम प्रभु’ की ‘ज्योति’ पर, जो हमें सत्य से आलोकित करेगी। ” (श्रीअरविंद द्वारा प्रदत्त व्याख्या)
इस मंत्र को पढ़कर एक वेद-विद्वान ने कहा था, “यह मंत्र वैदिक मंत्रों की मणिमाला का सुमेरु है।”
(यह कहानी श्री दुराईस्वामी की पत्नी स्वर्गीया सुश्री मीनाक्षी ने मुझे सुनाई थी। )
संदर्भ : श्रीअरविंद और श्रीमाँ की दिव्य लीला
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