तुम्हारे प्रति जो हमारे प्रभु के भौतिक आवरण रहे हो, तुम्हारे प्रति हमारा असीम आभार है । तुमने हमारे लिए इतना कुछ किया, हमारे लिए कर्म किया, संघर्ष किये, कष्ट झेले, आशा की, इतना सहन किया, तुमने हम सबके लिए संकल्प किये, प्रयत्न किये, तैयार किया, हमारे लिए सब कुछ प्राप्त किया, तुम्हारे आगे हम नतमस्तक हैं और यह प्रार्थना करते हैं कि हम एक क्षण के लिए भी कभी तुम्हारे ऋण को न भूलें ।-श्रीमाँ
जब मैंने उनसे (८ दिसम्बर १९५०) को अपने शरीर को पुनर्जीवित करने के लिए कहा, तो उन्होने स्पष्ट उत्तर दिया : “मैंने जान-बूझकर यह शरीर छोड़ा है। मैं इसे वापिस न लूँगा। मैं फिर से अतिमानसिक तरीके से बनाए गए पहले अतिमानसिक शरीर में अभिव्यक्त होऊंगा।”
श्रीअरविंद ने अपना शरीर परम निस्वार्थता की क्रिया में त्यागा है। उन्होने अपने शरीर की उपलब्धियों को इसलिए त्यागा कि सामूहिक उपलब्धि का मुहुर्त जल्दी आ सके। निश्चय ही अगर धरती अधिक ग्रहणशील होती, तो यह जरूरी न होता।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-१)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…