जब मैंने उनसे (८ दिसम्बर १९५०) को अपने शरीर को पुनर्जीवित करने के लिए कहा, तो उन्होने स्पष्ट उत्तर दिया : “मैंने जान-बूझकर यह शरीर छोड़ा है। मैं इसे वापिस न लूँगा। मैं फिर से अतिमानसिक तरीके से बनाए गए पहले अतिमानसिक शरीर में अभिव्यक्त होऊंगा।”
श्रीअरविंद ने अपना शरीर परम निस्वार्थता की क्रिया में त्यागा है। उन्होने अपने शरीर की उपलब्धियों को इसलिए त्यागा कि सामूहिक उपलब्धि का मुहुर्त जल्दी आ सके। निश्चय ही अगर धरती अधिक ग्रहणशील होती, तो यह जरूरी न होता।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-१)
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