एक बार बीरेन के एक मित्र आश्रम आए। वे बीरेन के लिए बर्मा टीक की एक आराम कुर्सी बनवा कर लाए। बीरेन ने श्रीअरविंद से लिखकर पूछा कि क्या वे कुर्सी स्वीकार कर सकते थे। श्रीअरविंद ने उत्तर दिया, “तुम कुर्सी को स्वीकार कर सकते हो, मानों वह तुम्हें श्रीमाँ की ओर से मिली है। तुम्हारे मन में (मित्र के) अहसान की कोई भावना नहीं होनी चाहिए।”
संदर्भ : श्रीअरविंद और श्रीमाँ की दिव्य लीला
... मैं सभी वस्तुओं में प्रवेश करती हूँ, प्रत्येक परमाणु के हृदय में निवास करते…
यदि तुम घोर परिश्रम न करो तो तुम्हें ऊर्जा नहीं मिलती, क्योंकि उस स्थिति में…
प्रेम और स्नेह की प्यास मानव आवश्यकता है, परंतु वह तभी शांत हो सकती है…
उनके लिये कुछ भी मुश्किल नहीं है जो भगवान को सच्चाई के साथ पुकारते हैं…