भगवान पर श्रद्धा रखने और भरोसा करनें में क्या अन्तर है ?
जैसा कि श्रीअरविंद ने लिखा है, श्रद्धा भरोसे से अधिक, कही अधिक पूर्ण है। देखो, तुम्हें भगवान पर भरोसा है, इस अर्थ में कि तुम्हें विश्वास है कि जो कुछ उनकी ओर से आयेगा वह सदा तुम्हारी अधिकतम भलाई के लिए होगा : उनका जो भी निर्णय हो, उनकी ओर से जो भी अनुभूति आये, वे तुम्हें जिस किसी परिस्थिति में रखें, सब कुछ सदा तुम्हारे अधिक-से-अधिक भले के लिए ही होगा। यह भरोसा है। किन्तु श्रद्धा – भगवान के अस्तित्व में एक प्रकार की अडिग निश्चितता – श्रद्धा एक ऐसी वस्तु है जो सम्पूर्ण सत्ता पर अधिकार कर लेती है। यह केवल मानसिक, आन्तरात्मिक अथवा प्राणिक ही नहीं होती : वस्तुतः, श्रद्धा समूची सत्ता में होती है। श्रद्धा सीधे अनुभूति की ओर ले जाती है ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५४
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…