शान्ति आवश्यक आधार है पर शान्ति पर्याप्त नहीं है। यदि शान्ति प्रबल और स्थायी हो तो वह आंतर सत्ता को मुक्त कर सकती है जो बाह्य क्रियाओं का एक स्थिर और अचंचल साक्षी बन सकती है। यही संन्यासी की मुक्ति है। कुछ प्रसंगों में वह बाहरी सत्ता को भी मुक्त कर सकती है और पुरानी प्रकृति को बाहर पारिपार्श्विक चेतना- में फेंक सकती है, परन्तु यह भी मुक्ति है, रूपांतर नही है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (द्वितीय भाग)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…