शान्ति आवश्यक आधार है पर शान्ति पर्याप्त नहीं है। यदि शान्ति प्रबल और स्थायी हो तो वह आंतर सत्ता को मुक्त कर सकती है जो बाह्य क्रियाओं का एक स्थिर और अचंचल साक्षी बन सकती है। यही संन्यासी की मुक्ति है। कुछ प्रसंगों में वह बाहरी सत्ता को भी मुक्त कर सकती है और पुरानी प्रकृति को बाहर पारिपार्श्विक चेतना- में फेंक सकती है, परन्तु यह भी मुक्ति है, रूपांतर नही है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (द्वितीय भाग)
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जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…