सबसे पहले हमें अपनी इच्छा को श्रीमाँ की इच्छा के साथ युक्त कर देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि यह केवल यंत्र है और वास्तव में इसके पीछे विद्यमान केवल श्रीमाँ की इच्छा ही फल प्रदान कर सकती है। उसके बाद जब हम अपने भीतर कार्य करने वाली श्रीमाताजी की शक्ति के विषय में पूर्ण रूप से सचेतन हो जाते है तब व्यक्तिगत इच्छा का स्थान भागवत इच्छा ले लेती है ।
संदर्भ : माताजी के विषय में
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…