सबसे पहले हमें अपनी इच्छा को श्रीमाँ की इच्छा के साथ युक्त कर देना चाहिए और यह समझना चाहिए कि यह केवल यंत्र है और वास्तव में इसके पीछे विद्यमान केवल श्रीमाँ की इच्छा ही फल प्रदान कर सकती है। उसके बाद जब हम अपने भीतर कार्य करने वाली श्रीमाताजी की शक्ति के विषय में पूर्ण रूप से सचेतन हो जाते है तब व्यक्तिगत इच्छा का स्थान भागवत इच्छा ले लेती है ।
संदर्भ : माताजी के विषय में
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…