विश्व की अंतिम सीमा तक … बल्कि उसके भी परे तक अपना विस्तार करो।

प्रगति की समस्त आवश्यकताओं को हमेशा अपने ऊपर ले लो और उनका समाधान ऐक्य के आनन्द में करो । तब तुम भागवत हो जाओगे।

संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-२)

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