यदि सर्वत्र एक जैसी ही चीजें की जाती हैं, हमें उन्हें दोहराने की कोई आवश्यकता नहीं है, हम दूसरों की अपेक्षा अधिक अच्छे रूप में उन्हें नहीं कर सकेंगे।
और जब वे मेरे सामने इस तर्क को उपस्थित करते हैं, वे ऐसी कोई बात मुझसे नहीं कह सकते जो मुझे पूरी तरह से मूर्खतापूर्ण न प्रतीत हो। यह सर्वत्र किया जाता है? बस, यही इसे न करने का कारण है; क्योंकि हम यदि वही करें जो दूसरे करते हैं तो कुछ भी करने का कष्ट उठाने से क्या लाभ? हम तो वास्तव में संसार के अन्दर कोई ऐसी चीज़ समाविष्ट करना चाहते हैं जो वहाँ नहीं है; पर हम यदि संसार की सभी आदतों, संसार की सभी अभिरुचियों, संसार की सभी संरचनाओं को बनाये रखें तो मैं नहीं समझती कि हम पुरानी लीक को छोड़ कर कैसे बाहर निकल सकते हैं और कोई नवीन चीज़ कर सकते हैं।
मेरे बच्चो ! मैं तुमसे कह चुकी हूँ, हर स्वर में, हर ढंग से इसे दोहरा चुकी हूँ : यदि तुम वास्तव में यहाँ रहने का लाभ उठाना चाहते हो तो एक ऐसी नयी दृष्टि से और एक ऐसी नयी समझ से वस्तुओं को देखने और उन्हें समझने का प्रयत्न करो जो किसी उच्चतर वस्तु पर, किसी गंभीरतर, विशालतर वस्तु पर, किसी सत्यतर वस्तु पर, किसी ऐसी वस्तु पर आधारित हों जो अभी यहाँ नहीं हैं पर एक दिन होंगी। और चूँकि हम इस भविष्य
को निर्मित करना चाहते हैं, इसीलिए हमने यह विशेष स्थिति अपनायी है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५६
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…