हमारे अन्तर में एक आकारहीन स्मृति अभी तक चिपकी है
औ’ कभी-कभी, जब हमारी द़ृष्टि अन्तर्मुखी होती है,
पार्थिवता का अज्ञान-पट हमारी आंखों से उठा देती है;
तब वहां एक अल्पकालीन अद्भुत मुक्ति में हम पहुंच जाते हैं।

संदर्भ : “सावित्री”

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