हमारे अन्तर में एक आकारहीन स्मृति अभी तक चिपकी है
औ’ कभी-कभी, जब हमारी द़ृष्टि अन्तर्मुखी होती है,
पार्थिवता का अज्ञान-पट हमारी आंखों से उठा देती है;
तब वहां एक अल्पकालीन अद्भुत मुक्ति में हम पहुंच जाते हैं।
संदर्भ : “सावित्री”
मेरी प्यारी माँ, काश ! मैं अपनी अज्ञानी सत्ता को यह विश्वास दिला पाता कि…
तुम्हारा अवलोकन बहुत कच्चा है। ''अन्दर से'' आने वाले सुझावों और आवाजों के लिए कोई…
क्षण- भर के लिए भी यह विश्वास करने में न हिचकिचाओ कि श्रीअरविन्द नें परिवर्तन…
सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को…