अतिमानसिक चेतनाके विषयमें बातें करना और उसे अपने अन्दर उतारने- की बात सोचना सबसे अधिक खतरनाक है । यह महान् कार्य करने की पूर्ण लालसा उत्पन्न कर सकता और समतोलता नष्ट कर सकता है। साधक को जो चीज पाने की चेष्टा करनी है वह है – भगवान की ओर पूर्ण उद्घाटन, अपनी चेतना का चैत्य रूपांतर, आध्यात्मिक रूपांतर। चेतनाके उस परिवर्तनके आवश्यक घटक हैं – स्वार्थहीनता, निष्कामभाव, विनम्रता, भक्ति, समर्पण, स्थिरता, सभता, शान्ति,अचंचल सद्हृदयता। जब तक उसमें चैत्य और आध्यात्मिक रूपांतर नहीं हो जाता, अतिमानसिक बनने की बात सोचना एक मूर्खता है और एक उद्धत मूर्खता है । यदि इन सब अहंकारपूर्ण विचारोंको प्रश्रय दिया जया तो ये केवल अहं को ही अतिरंजित कर सकते, साधना को नष्ट कर सकते और गंभीर आध्यात्मिक विपत्तियों में ले जा सकते हैं। इन बातोंका पूर्ण रूपमें परित्याग कर देना चाहिये ।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग-२)
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सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को…
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