मानव का जीवन एक दीर्घ धूमिल मन्द तैयारी है,
कठिन श्रम और आशा एवं युद्ध-शान्ति का घूमता क्रम है।
जिसे महाप्राण पुरुष जड़तत्त्व की अंधेरी भूमि पर आंकता है।
उन शिखरों पर चढ़ने को जहां पहले कोई पदचाप नहीं पड़ी है,
वह नभ में दागी गयी एक ज्वाला के प्रकाश में खोजता है
एक अर्धज्ञात गोपित यथार्थ को, जो सदैव खो जाता है,
किसी सत् की खोज है जो कभी नहीं मिल पाया है,
एक आदर्श का पन्थ है जो यहां कभी सत्य नहीं हो पाया है,
उत्थान और पतन का एक अनन्त खुलता हुआ चक्र है ।
जो सतत गतिशील है,
जब तक अन्त में इसे विराट् बिन्दु प्राप्त नहीं हो जाता
जिसके माध्यम से उसकी दिव्य महिमा प्रकाशमान है।
जिसके लिए हम बने हैं
और तब हम प्रभु की चिरन्तनता में बन्धन तोड़ प्रवेश कर जाते हैं।
अपने स्वभाव की सीमारेखा पार कर मुक्त हो जाते हैं।
परा-प्रकृति के जीवन्त ज्योति के घेरे में प्रवेश कर जाते हैं।
संदर्भ : सावित्री
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