जब एक बार चेतनाएं एकाकी चेतना से पृथक् हो गयीं तब अवश्यम्भावी रूप से वे अज्ञान में गिर गयीं, और अज्ञान की अन्तिम परिणति निश्चेतना थी; एक अन्धकारमय असीम निश्चेतना से यह भौतिक जगत् उदित होता है और इसमें से प्रकट होती आत्मा क्रमविकास के द्वारा छिपी हई ज्योति से आकृष्ट होकर चेतना में संघर्ष करती हुई उस लुप्त दिव्यता की ओर, जहां से यह आयी है, अब तक अन्धे के समान आरोहण कर रही है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…