जब एक बार चेतनाएं एकाकी चेतना से पृथक् हो गयीं तब अवश्यम्भावी रूप से वे अज्ञान में गिर गयीं, और अज्ञान की अन्तिम परिणति निश्चेतना थी; एक अन्धकारमय असीम निश्चेतना से यह भौतिक जगत् उदित होता है और इसमें से प्रकट होती आत्मा क्रमविकास के द्वारा छिपी हई ज्योति से आकृष्ट होकर चेतना में संघर्ष करती हुई उस लुप्त दिव्यता की ओर, जहां से यह आयी है, अब तक अन्धे के समान आरोहण कर रही है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…