दिव्य जीवन की ओर आरोहण ही मानव यात्रा है, कर्मों का ‘कर्म’ और स्वीकार्य ‘यज्ञ’ है। जगत में मनुष्य का यही सच्चा कार्य है, यही उसके जीवन का औचित्य है, उसके बिना वह एक रेंगता हुआ कीड़ा रह जायेगा जो भौतिक विश्व की भयानक विशालताओं के बीच सतही पानी और कीचड़ के संयोग से किसी तरह बने एक छोटे-से कण पर अन्य स्वल्पायु कीटों के बींच रेंगता रहेगा।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-२१)
भगवान को अभिव्यक्त करने वाली किसी भी चीज को मान्यता देने में लोग इतने अनिच्छुक…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिसमें…
मनुष्य-जीवन के अधिकांश भाग की कृत्रिमता ही उसकी अनेक बुद्धमूल व्याधियों का कारण है, वह…
श्रीअरविंद हमसे कहते हैं कि सभी परिस्थितियों में प्रेम को विकीरत करते रहना ही देवत्व…