प्रकृति में एक ऊपर उठने वाला विकास है जो पत्थर से पौधों में और पौधे से पशु में तथा पशु से मनुष्य में उठता है, चूंकि अभी तक मनुष्य ही इस उठते हए विकास की अन्तिम सीढ़ी है, वह समझता है कि इस आरोहण में वही सबसे ऊंचा स्तर है और यह मानता है कि धरती पर उससे ऊंचा कुछ हो ही नहीं सकता। लेकिन यह उसकी भूल है। अपनी भौतिक प्रकृति में वह अभी तक प्रायः पूरा-पूरा पशु है, एक विचारशील और बोलने वाला पशु, फिर भी, अपने भौतिक अभ्यासों और सहज बोधों में पशु ही है। निःसन्देह, प्रकृति ऐसे अपूर्ण परिणाम से सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह एक ऐसी सत्ता को लाने के लिए प्रयत्नशील है जो मनुष्य की तुलना में वैसी ही होगी जैसा मनुष्य पशु की तुलना में है, वह ऐसी सत्ता होगी जो अपने बाहरी रूप में तो मनुष्य ही होगी, लेकिन उसकी चेतना मन तथा उसकी अज्ञान की दासता से बहुत ऊंची उठ जायेगी।
श्रीअरविन्द धरती पर मनुष्य को यही सत्य सिखलाने के लिए आये थे। उन्होंने कहा कि मनुष्य केवल एक संक्रमणशील सत्ता है जो मानसिक चेतना में निवास करता है, लेकिन उसमें एक नयी चेतना, सत्य-चेतना प्राप्त करने की सम्भावना है। वह पूरी तरह सामञ्जस्यपूर्ण, शिव, सुन्दर, सुखी और पूर्णतः सचेतन जीवन जीने के योग्य होगा। अपने सारे पार्थिव जीवन में श्रीअरविन्द ने अपना सारा समय अपने अन्दर (जड़-भौतिक, पार्थिव चेतना में) उस चेतना को स्थापित करने में लगाया जिसे उन्होंने अतिमानस का नाम दिया है, और जो लोग उनके इर्द-गिर्द इकट्ठे थे उन्हें सहायता दी कि वे भी इसे पा सकें।
संदर्भ : शिक्षा के ऊपर
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