प्रेम केवल एक ही है – ‘भागवत प्रेम’ ; और उस ‘प्रेम’ के बिना कोई सृष्टि न होती। सब कुछ उसी ‘प्रेम’ के कारण विद्यमान है। और जब हम अपने निजी प्रेम को खोजते हैं, जिसका कोई अस्तित्व नहीं, तब हम ‘प्रेम’ का अनुभव नहीं करते; उस एकमात्र ‘प्रेम’ का जो ‘भागवत प्रेम’ है और समस्त सृष्टि में रमा हुआ है।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-२)
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…