प्रेम केवल एक ही है – ‘भागवत प्रेम’ ; और उस ‘प्रेम’ के बिना कोई सृष्टि न होती। सब कुछ उसी ‘प्रेम’ के कारण विद्यमान है। और जब हम अपने निजी प्रेम को खोजते हैं, जिसका कोई अस्तित्व नहीं, तब हम ‘प्रेम’ का अनुभव नहीं करते; उस एकमात्र ‘प्रेम’ का जो ‘भागवत प्रेम’ है और समस्त सृष्टि में रमा हुआ है।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-२)
क्षण- भर के लिए भी यह विश्वास करने में न हिचकिचाओ कि श्रीअरविन्द नें परिवर्तन…
सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को…
प्रेम और स्नेह की प्यास मानव आवश्यकता है, परंतु वह तभी शांत हो सकती है…
पत्थर अनिश्चित काल तक शक्तियों को सञ्चित रख सकता है। ऐसे पत्थर हैं जो सम्पर्क की…