तुम्हारी आन्तरिक अवस्था रोग का कारण तब बनती है जब उसमें कोई प्रतिरोध या विद्रोह हो अथवा जब तुम्हारे अन्दर कोई ऐसा भाग हो जो भागवत संरक्षण का प्रत्युत्तर नहीं देता; अथवा उसमें कोई ऐसी चीज भी हो सकती है जो इच्छापूर्वक, जान-बूझकर विरोधी शक्तियों को अन्दर बुलाती है। तुम्हारे
अन्दर इस प्रकार की कोई मामूली-सी गति हो तो वह भी पर्याप्त है; विरोधी शक्तियां तुरत तुम पर चढ़ आती हैं और उनका आक्रमण बहुधा रोग का रूप धारण कर लेता है।…
तुम्हारे शरीर में और तुम्हारे चारों ओर रोग की सम्भावनाएं सदा बनी रहती हैं; तुम्हारे अन्दर या तुम्हारे चारों तरफ सब प्रकार की बीमारियों के कीटाणु या जीवाणु मंडराते रहते हैं। तुम्हें जो रोग वर्षों से नहीं हुआ उसके तुम एकाएक शिकार क्यों हो जाते हो? तुम कहोगे कि इसका कारण “प्राण-शक्ति का मन्द पड़ जाना” है। परन्तु यह मन्दता कहां से आती है? यह सत्ता में किसी प्रकार का असामञ्जस्य होने से, भागवत शक्तियों के प्रति ग्रहणशीलता का अभाव होने से आती है। जब तुम उस शक्ति और ज्योति से, जो तुम्हारा धारण-पोषण करती हैं, अपने-आपको काट लेते हो तब यह मन्दता आती है। तब जिसको चिकित्सा-शास्त्र “रोग के लिए अनुकूल क्षेत्र” कहते हैं वह तैयार हो जाता है और
कोई चीज इसका फायदा उठा लेती है। सन्देह, निरुत्साह, विश्वास का अभाव, स्वार्थ के साथ अपनी ओर ही मुड़ना-ये चीजें हैं जो ज्योति और दिव्य शक्ति से तुम्हें काट देती हैं और आक्रमण के लिए लाभकर होती हैं। तुम्हारे बीमार पड़ने का असली कारण यही है, न कि रोग के जीवाणु।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१
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