इस योग की साधना का कोई बँधा हुआ मानसिक अभ्यासक्रम या ध्यान का कोई निश्चित प्रकार अथवा कोई मंत्र या तंत्र नहीं है। बल्कि यह साधना साधक के ह्रदय की अभीप्सा से आरम्भ होती है ; साधक अपनी ऊर्ध्वस्थित या अंतःस्थित आत्मा का ध्यान करता है, अपने-आपको भागवत प्रभाव की ओर, ऊपर स्थित भागवत शक्ति और उसके कार्य की ओर तथा ह्रदय में विद्यमान भागवत उपस्थिति की ओर उद्घाटित कर देता है और जो कुछ इन बातों के लिए विजातीय है उस सबका परित्याग कर देता है। केवल श्रद्धा, अभीप्सा तथा आतमसमर्पण के द्वारा ही यह आत्मोद्घाटन हो सकता है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…