पथ पर मनुष्य जो पहली चीज़ सीखता है वह यह है कि देने का आनन्द पाने के आनन्द से कही अधिक बढ़ कर है  ।

तब तुम धीरे-धीरे सीखते हो कि अपने-आपको भूल जाना निर्विकार शांति का स्तोत्र है । बाद में इस आत्म-विस्मृति में तुम भगवान को पाते हो और वे ही सदा बढ़ते रहने वाले आनन्द का स्तोत्र हैं ।

संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खण्ड-१६)

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