श्रीमाँ एक तश्तरी में टॉफी लेकर आती थी तथा ऊपर के बरामदे में प्रतीक्षा करते हुए हर साधक को एक-एक टॉफी फेंकती थीं। साधक उन्हें पकड़ लेते थे। अमृत खेलकुद , कसरत आदि में दक्ष नहीं थे तथा श्रीमाँ द्वारा खेल-खेल में , ज़ोर से फेकी हुई टॉफी को पकड़ने में सफल नहीं होते थे ।

एक दिन देखा गया कि अमृत अपनी बाहें पूरी फैलाकर विचित्र चेष्टा कर रहे थे मानों कोई बड़ी वस्तु पकड़ रहे हों। श्रीमाँ ने उनसे पूछा, “अमृत ! तुम क्या कर रहे हो ?” उन्होने उत्तर दिया, “माँ, टॉफी के पीछे जो आ रहा है मैं उसी को पकड़ने की कोशिश कर रहा हूँ।” श्री माँ ने उनकी वाग्विदग्धता और मनोवृत्ति दोनों को सराहा ।

(यह कहानी मुझे स्वर्गीय श्री अमृत की भतीजी कुमुदा ने सुनायी थी।)

संदर्भ : श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की दिव्य लीला 

शेयर कीजिये

नए आलेख

भगवान के दो रूप

... हमारे कहने का यह अभिप्राय है कि संग्राम और विनाश ही जीवन के अथ…

% दिन पहले

भगवान की बातें

जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…

% दिन पहले

शांति के साथ

हमारा मार्ग बहुत लम्बा है और यह अनिवार्य है कि अपने-आपसे पग-पग पर यह पूछे…

% दिन पहले

यथार्थ साधन

भौतिक जगत में, हमें जो स्थान पाना है उसके अनुसार हमारे जीवन और कार्य के…

% दिन पहले

कौन योग्य, कौन अयोग्य

‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…

% दिन पहले

सच्चा आराम

सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…

% दिन पहले