नरक और स्वर्ग तो बहुधा आत्मा की काल्पनिक अवस्थाएँ होती हैं, बल्कि कहना चाहिये प्राण की अवस्थाएँ, जिन्हें वह प्रयाण के बाद गढ़ता है। नरक का अर्थ है, प्राण जगत् से होकर गुजरने वाली कष्टप्रद यात्रा या फिर वहाँ देर तक अटक जाना, जैसा कि बहुत से आत्महत्या करने वाले लोगों के साथ होता है जहाँ वे इस अस्वाभाविक और उग्र प्रयाण से उत्पन्न कष्ट और पीड़ा की शक्तियों से घिरे रहते हैं। निस्सन्देह, मन और प्राण के ऐसे लोक भी हैं जो सुखद या दुःखद अनुभवों से पटे हुए हैं। अपने-अपने स्वभाव के अनुसार व्यक्ति अपने-अपने सादृश्य पाता हुआ इनमें से गुज़रता है। लेकिन दण्ड या पुरस्कार का विचार अनपढ़ और अशिष्ट कल्पना है, मात्र एक प्रचलित भ्रान्ति है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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...पूजा भक्तिमार्ग का प्रथम पग मात्र है। जहां बाह्य पुजा आंतरिक आराधना में परिवर्तित हो…