दृढ़ और निरन्तर संकल्प पर्याप्त है

अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है। यह तो जानी हुई बात है कि मानव प्रकृति के लिए फिलहाल यह सम्भव नहीं है कि  उसके अन्दर सन्देह की गतियां न हों, अन्धकार न हो, तो ऐसी क्रियाओं और गतियों से भरा हुआ है जिन्हें भगवान् के अर्पण नहीं किया गया है, और यह सब तब तक रहेगा ही जब तक कि आन्तरिक चेतना इतने पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो जाती कि इन गतियां का बना रहना ही असम्भव हो जाये। चूंकि मानव ऐसा है इसीलिए इस संकल्प की आवश्यकता है कि परमा शक्ति उसकी बाधाओं को दूर कर दे । यह तभी हो सकता है जब साधक अपने तन-मन-हृदय से इसके लिए राजी हो जाये । एक बार राजी हो जाने पर बस उसे यही करना है कि जब-जब निम्न गतियां उठे, वह उन्हें अस्वीकार करता चले, इसके लिए उसकी संकल्प-शक्ति, उसकी श्रद्धा को बहुत मजबूत होना चाहिये-क्योंकि अंततः, निरन्तरता का यही प्रयास उच्चतर शक्ति को कार्य करने देने के लिए स्थायी बना सकता है।

संदर्भ :  श्रीअरविंद के पत्र 

शेयर कीजिये

नए आलेख

साधना में प्रगति

अगर तुम्हारी श्रद्धा दिनादिन दृढ़तर होती जा रही है तो निस्सन्देह तुम अपनी साधना में…

% दिन पहले

आध्यात्मिक जीवन की तैयारी

"आध्यात्मिक जीवन की तैयारी करने के लिए किस प्रारम्भिक गुण का विकास करना चाहिये?" इसे…

% दिन पहले

उदार विचार

मैंने अभी कहा था कि हम अपने बारे में बड़े उदार विचार रखते हैं और…

% दिन पहले

शुद्धि मुक्ति की शर्त है

शुद्धि मुक्ति की शर्त है। समस्त शुद्धीकरण एक छुटकारा है, एक उद्धार है; क्योंकि यह…

% दिन पहले

श्रीअरविंद का प्रकाश

मैं मन में श्रीअरविंद के प्रकाश को कैसे ग्रहण कर सकता हूँ ? अगर तुम…

% दिन पहले

भक्तिमार्ग का प्रथम पग

...पूजा भक्तिमार्ग का प्रथम पग मात्र है। जहां बाह्य पुजा आंतरिक आराधना में परिवर्तित हो…

% दिन पहले