अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है। यह तो जानी हुई बात है कि मानव प्रकृति के लिए फिलहाल यह सम्भव नहीं है कि उसके अन्दर सन्देह की गतियां न हों, अन्धकार न हो, तो ऐसी क्रियाओं और गतियों से भरा हुआ है जिन्हें भगवान् के अर्पण नहीं किया गया है, और यह सब तब तक रहेगा ही जब तक कि आन्तरिक चेतना इतने पर्याप्त रूप से विकसित नहीं हो जाती कि इन गतियां का बना रहना ही असम्भव हो जाये। चूंकि मानव ऐसा है इसीलिए इस संकल्प की आवश्यकता है कि परमा शक्ति उसकी बाधाओं को दूर कर दे । यह तभी हो सकता है जब साधक अपने तन-मन-हृदय से इसके लिए राजी हो जाये । एक बार राजी हो जाने पर बस उसे यही करना है कि जब-जब निम्न गतियां उठे, वह उन्हें अस्वीकार करता चले, इसके लिए उसकी संकल्प-शक्ति, उसकी श्रद्धा को बहुत मजबूत होना चाहिये-क्योंकि अंततः, निरन्तरता का यही प्रयास उच्चतर शक्ति को कार्य करने देने के लिए स्थायी बना सकता है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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