श्रीमाँ ने अपनी एक सहायिका से कहा था, “बहुत से लोग जब यहाँ आते है तब जो वस्तु उन्हें अशांत करती है, उन्हें उसी का सामना करना पड़ता है; अगर वे यह तथ्य समझ जाये तो प्रगति करने में यह उनकी बहुत सहायता करता है।” उदाहरणस्वरूप श्रीमाँ ने एक साधक का उल्लेख किया, जो शाकाहारी और जैन मतावलम्बी था और एक बौद्ध मठ में रह चुका था। आश्रम आने पर उसे रहने के लिए जो कमरा दिया गया वहाँ पास में ही मुर्गियाँ कटती थीं। किन्तु इस साधक ने यह समझ लिया कि उसको अपनी वितृष्णा पर विजय पानी होगी। श्रीमाँ ने कहा, “जब लोग वस्तुओं को इस दृष्टि से देख सकते हैं और उन्हें शांति से स्वीकार करते हैं, तब यह बहुत मूल्यवान होता है । ”
संदर्भ : श्रीअरविंद और श्रीमाँ की दिव्य लीला
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…