मैं तुम सबमें द्वार खोलने के लिए पूरा ध्यान देती हूँ, ताकि अगर तुम्हारें अंदर एकाग्रता की जरा भी गति हो, तो तुम्हें ऐसे बंद दरवाजे के सामने लंबी अवधियों तक न ठहरना पड़ें जो हिलता तक नहीं, जिसकी चाबी तुम्हारें पास नहीं है और जिसे तुम खोलना नहीं जानते।
दरवाजा खुला हुआ है, तुम्हें उस दिशा में देखना-भर होगा। तुम्हें उसकी और पीठ न करनी चाहिये।
संदर्भ : माताजी के वचन (भाग-१)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
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अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
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आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…