वासुदेवः सर्वम् इति का यही अर्थ है कि यह सारा जगत् भगवान् है, इस जगत् में जो कुछ है और इस जगत् से अधिक भी जो कुछ है, सब भगवान् है। गीता भगवान् की विश्वातीत सत्ता की ओर विशेषतः ध्यान खींचती है। क्योंकि, यदि ऐसा न किया जाये तो मन अपने परम लक्ष्य को देखने से चूक जायेगा और बस विश्व के अन्दर जो कुछ है, उसी को सच मानेगा या फिर जगत् के अन्दर अभिव्यक्त भगवान् की किसी आंशिक अनुभूति से ही आसक्त हो जायेगा। जब कि गीता भगवान् की उस विश्व सत्ता पर जोर देती है जिसमें सभी प्राणी जीते और कर्म करते हैं; वस्तुतः जागतिक प्रयास का यही औचित्य है और यही है वह विराट् आध्यात्मिक आत्म-सचेतनता जिसमें भगवान् अपने-आपको काल-पुरुष के रूप में देखते हुए जगत् का अपना कर्म करते रहते हैं। इसके बाद गीता ने भगवान् को मानव-शरीरवासी के रूप में ग्रहण करने की बात विशेष आग्रह के साथ कही है, क्योंकि सभी
प्राणियों में वे ही वास करते हैं और अगर अन्तस्थित भगवान् को हम न पहचान पायें तो न केवल हम वैयक्तिक जीवन के दिव्य अर्थ को न समझ पायेंगे बल्कि हमारे अन्दर जो चरम आध्यात्मिक सम्भावनाएं हैं उनसे भी वञ्चित रह जायेंगे; और साथ ही, मानव आत्माओं के परस्पर-सम्बन्ध भी क्षुद्र, सीमित और अहंकारपूर्ण हो जायेंगे। अन्त में, गीता ने विस्तार के साथ यह बतलाया है कि वस्तुतः संसार की सभी चीजों में प्रभु ही प्रकट हो रहे हैं, सभी के मूल में उन्हीं एकमेव भगवान् की शक्ति और ज्योति है क्योंकि सभी प्राणियों को इस रूप में देखना भी भगवान् का ज्ञान प्राप्त करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है, इसी पर टिका रहता है समस्त प्रकृति और समस्त सत्ता का भगवान् की ओर पूर्ण रूप से मुड़ना, जगत में भागवत कर्मों को मनुष्य द्वारा कारना; और केवल तभी मनुष्य अपनी मानसिकता तथा इच्छा-शक्ति को भागवत कर्म के सांचे में ढाल सकता है और वह इस जगत्
में रहते हुए भगवान् का प्रतिनिधित्व कर सकता है।
संदर्भ : गीता-प्रबंध
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