महान अंत ? या महान आरंभ?


महाप्रभु श्रीअरविंद घोष

जहाँ कहीं तुम एक महान अंत देखो, निश्चित हो जाओ कि एक महान आरंभ हो गया है। जहां कही विकराल और कष्टकर विनाश तुम्हारें मन को भयभीत कर दे, उसे विशाल और महान सर्जन कि निश्चिति की सांत्वना दो। भगवान न केवल अचल, क्षीण ध्वनि में है बल्कि अग्नि तथा बवंडर में भी विद्यमान हैं ।

“जितना बड़ा विनाश, सर्जन की उतनी ही मुक्त संभावनाएँ होती हैं; लेकिन विनाश बहुधा दीर्घकालिक, मन्दगामी और अत्याचारी होता है; नवसर्जन आगमन में देर लगाता है या उसकी विजय के रास्ते में बाधाएँ बिछी होती हैं। रातों का सिलसिला जारी रहता है और दिवस आते नहीं दीखते, यहां तक कि मिथ्या भोर का आभास होता है। लेकिन हे मानव ! तू निराश न हो बल्कि सतर्क रह और कार्य करता चल ।

“प्रभु भला क्यों अपनी धरती पर निर्ममता से हथौड़े बरसाते हैं, उसे आटे की तरह क्यों मसलते और उसनते हैं, कितनी ही बार उसे रक्त-स्नान करवाते हैं और नरकाग्नि की भट्टी में झोंकते हैं ? क्योंकि मानवता का अधिकांश अभी तक कठोर, अनगढ़ और घृणित कच्ची धातु का बना है जिसे किसी और तरीके से पिघलाया या साँचे में नहीं ढाला जा सकता जैसा उपदान वैसा ही तरीका अपनाया जायेगा। आओ, हम इस उपादान को अधिक उदात्त और अधिक शुद्ध धातु में बदलने में इसकी मदद करें, तब ईश्वर के तरीके भी सौम्यतर और मधुरतर होंगे और यह उपादान भी अपने व्यवहार और प्रयोजन में अधिक उत्कृष्ट और अधिक निष्कपट-निर्मल होगा ।”

संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-१६)


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