मधुर माँ ,
एक लम्बे अरसे से मैं देख रहा हूँ कि मैं कुछ लजीला-सा हूं । मेरे अन्दर हीन-भावना है । मेरा ख्याल है कि मुझे डर रहता है कि लोग मेरे अज्ञान को जान जायेंगे । मैं ऐसा क्यों हूं ? मैं इसमें से कैसे बाहर निकाल सकता हूं ?
इन सबके और इस विख्यात हीनता-ग्रंथि के पीछे होता है अहंकार और उसका दम्भ जो अपना अच्छा रूप दिखाना चाहता है और औरों से प्रशंसा चाहता है ; लेकिन अगर तुम्हारा समस्त क्रिया-कलाप भगवान के प्रति उत्सर्ग हो तो तुम औरों की प्रशंसा की जरा भी परवाह न करोगे।
संदर्भ : माताजी के पत्र (भाग – १६)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…