भगवान के प्रति उत्सर्ग


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

मधुर माँ,

    आपने बहुत बार कहा है कि हमारे क्रिया-कलाप भगवान के प्रति उत्सर्ग होने चाहियें । इसका ठीक-ठीक अर्थ क्या है और यह कैसे किया जा सकता है ? उदाहरण के लिए, जब हम टेनिस और बास्केट बॉल खेलते हैं तो हम इसे उत्सर्ग के रूप में कैसे कर सकते हैं? निश्चय ही मानसिक रुपायण काफी नहीं हैं  !

इसका मतलब यह है कि तुम जो कुछ करो वह व्यक्तिगत, अहंकारमय लक्ष्य के लिए, सफलता, यश, लाभ, भौतिक लाभ या गर्व के लिए न करके सेवा या उत्सर्ग-भाव से करो ताकि तुम भागवत इच्छा के बारे में ज्यादा सचेतन बन सको, अपने-आपको और भी पूरी तरह उसे सौंप सको, यहाँ तक कि तुम इतनी प्रगति कर लो कि तुम यह जान और अनुभव कर सको कि स्वयं भगवान तुम्हारे अंदर काम कर रहे हैं, उनकी शक्ति तुम्हें प्रेरित कर रही है, उनकी इच्छा तुम्हें सहारा दे रही है – यह केवल मानसिक ज्ञान न हो बल्कि चेतना की स्थिति की सच्चाई और निष्कपता और जीवंत अनुभव की शक्ति हो।

इसे संभव बनाने के लिए जरूरी है कि सभी अहंकारमय अभिप्राय और अहंकारी प्रतिक्रियाएँ गायब हो जायें।

संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खण्ड-१६)