हमारे शौच की अतुलनीय व्यवस्था


श्रीअरविंद की काल कोठरी अलीपुर जाईल

निर्जन कारावास की पहली अवधि के बाद जब हमें एक साथ रखा गया तब मेरे सिविलियन के अधिकारों का पृथकीकरण हुआ,-अधिकारियों ने शौच के लिए अन्य उपकरण जुटाया किन्तु महीने-भर में घृणा पर काबू पाने का बिन माँगा पाठ पढ़ लिया था। शौच की सारी व्यवस्था ही मानों इस संयम की शिक्षा को ध्यान में रख कर की गयी थी। पहले कहा है, निर्जन कारावास विशेष दण्ड में गिना जाता है और उस दण्ड का मूल सिद्धान्त है जितना सम्भव हो मनुष्य-संसर्ग और मुक्त आकाश-सेवन का वर्जन। बाहर शौच की व्यवस्था करने से तो यह सिद्धान्त भंग होता, अतः कोठरी में ही तारकोल-पुती दो टोकरियाँ दी जाती थीं। सवेरे-शाम मेहतर साफ़ कर जाता, तीव्र आन्दोलन और मर्मस्पर्शी भाषण देने पर और समय भी सफ़ाई हो जाती, किन्तु असमय पाख़ाना जाने से घण्टों-घण्टों तक दुर्गन्ध भोग कर प्रायश्चित्त करना पड़ता। निर्जन कारावास की दूसरी अवधि में इसमें थोड़ा-बहुत सुधार हुआ, किन्तु सुधार होता है पुराने ज़माने के मूलतत्त्वों को अक्षुण्ण रखते हुए शासन में सुधार। किं बहुना, इस छोटी-सी कोठरी में ऐसी व्यवस्था होने से हमेशा, विशेषकर खाने के समय और रात को, भारी असुविधा भोगनी पड़ती थी। जानता हूँ, शयनागार के साथ पाख़ाना रखना प्रायः विलायती सभ्यता की विशेषता है, किन्तु एक छोटे-से कमरे में शयनागार, भोजनालय और पाख़ाना-इसे कहते हैं too much of a good thing (भलाई की भी सीमा पार कर जाना)। हम ठहरे कुअभ्यासग्रस्त भारतवासी, सभ्यता के इतने ऊँचे सोपान पर पहुँचना हमारे लिए कष्टकर है।

 

संदर्भ : कारावास की कहानी 


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