भगवान को अभिव्यक्त करने वाली किसी भी चीज को मान्यता देने में लोग इतने अनिच्छुक होते हैं कि वे हमेशा दोष निकालने के लिए ऊपर से दीखने वाली भूलों को खोजने के लिए और जो ऊंची चीज है उसे भी अपने स्तर तक उतार लाने के लिए बड़े सतर्क रहते हैं। कोई उनसे आगे बढ़ जाये तो बहुत क्रुद्ध हो उठते हैं और जब वे ऊपरी त्रुटियां पा लेते हैं तो बहुत खुश होते हैं। लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अगर वे अपने असंस्कृत भौतिक मन के साथ धरती पर उपस्थित भगवान के सामने भी आ जायें तो वे उन्हें भी असंस्कृत ही देखेंगे। वे ऐसी चीज देखने की आशा नहीं कर सकते जिसे देखने में वे स्वयं असमर्थ हैं या जिसे देखने के लिए वे अनिच्छुक हैं। अगर वे भगवान् के कामों की ऊपरी सतह को ही देखें तो निश्चय ही गलत राय बना बैठेंगे, क्योंकि वे यह बात कभी न समझ पायेंगे कि जो एकदम से मानव क्रिया-कलाप मालूम होता है वह सचमुच उससे बहुत भिन्न है और एक अ-मानव स्रोत से आता है।
भगवान् जब धरती पर कार्य के लिए प्रकट होते हैं तो ऐसा लगता है कि वे पूरी तरह मानव रीति से काम कर रहे हैं, लेकिन सचमुच ऐसा नहीं होता। प्रत्यक्ष तथा प्रतीत होने वाले मानकों से उनका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। परन्तु मनुष्य अपनी हीनता पर पूरी तरह से मुग्ध होते हैं और किसी उच्चतर सत्य के आगे झुकने या उसे स्वीकार करने के लिए मानती है उसमें दोष ढूंढ़ने की यह इच्छा, उसकी आलोचना करने और उस पर संदेह करने का दुर्भावनापूर्ण आवेग मानवता की मुहर है-यह क्षुद्र मानव का चिह्न है। जब कि दूसरी ओर, जहां भी सत्य, सुन्दर, उदात्त के लिए सहज प्रशंसा निकलती है तो यह एक तरह की भागवत अभिव्यक्ति है। तुम निश्चित रूप से जान लो कि जब तुम किसी चीज को दिव्य स्रोत से आया हुआ अनुभव करते हो और तुम्हारा हृदय उसकी प्रशंसा और आराधना करने के लिए उछल पड़ता है तो तुम्हारी भौतिक चेतना चैत्य पुरुष के, तुम्हारी अन्तरात्मा के सम्पर्क में आयी है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर (१९२९-१९३१)
0 Comments