हमारे नाटक के शेक्सपीयर थे नॉर्टन साहब। किन्तु शेक्सपीयर और नॉर्टन में मैंने एक प्रभेद देखा। संगृहीत उपादान का कुछ अंश शेक्सपीयर कहीं-कहीं छोड़ भी देते थे, पर नॉर्टन साहब अच्छा-बुरा, सत्य-मिथ्या, संलग्न-असंलग्न, अणोरणीयान् महतो महीयान् जो पाते, एक भी न छोड़ते, तिस पर निजी कल्पनासृष्ट प्रचुर Suggestion, Inference, Hypothesis (सुझाव, अनुमान, परिकल्पना) जुटा उन्होंने इतना सुन्दर Plot (कथानक) रचा कि शेक्सपीयर, डेफ़ो इत्यादि सर्वश्रेष्ठ कवि और उपन्यासकार इस महाप्रभु के आगे मात खा गये। आलोचक कह सकते हैं कि जैसे फ़ॉलस्टाफ़ के होटल के बिल में एक आने की रोटी और असंख्य गैलन शराब का समावेश था उसी तरह नॉर्टन साहब के Plot में एक रत्ती प्रमाण के साथ दस मन अनुमान और suggestions (सुझाव) थे। किन्तु आलोचक भी plot की परिपाटी और रचना-कौशल की प्रशंसा करने को बाध्य होगा। नॉर्टन साहब ने इस नाटक के नायक के रूप में मुझे ही पसन्द किया, यह देख मैं समधिक प्रसन्न हुआ। जैसे मिल्टन के “Paradise Lost” का शैतान, वैसे ही मैं भी था नॉर्टन साहब के Plot का कल्पनाप्रभूत महाविद्रोह का केन्द्रस्वरूप, असाधारण तीक्ष्णबुद्धि-सम्पन्न, क्षमतावान् और प्रतापशाली bold bad man (ढीठ बुरा आदमी)। मैं ही था राष्ट्रीय आन्दोलन का आदि और अन्त, स्रष्टा और त्राता, ब्रिटिश साम्राज्य का संहार-प्रयासी। उत्कृष्ट और तेजस्वी अंगरेज़ी लेख देखते ही नॉर्टन साहब उछल पड़ते और उच्च स्वर में कहते-अरविन्द घोष। आन्दोलन के जितने भी वैध, अवैध, सुशृंखलित अंग या अप्रत्याशित फल-वे सभी अरविन्द घोष की सृष्टि हैं, और क्योंकि वे अरविन्द की सृष्टि हैं इसलिए वैध होने पर भी उसमें अवैध अभिसंधि गुप्त रूप से निहित है। शायद उनका यह विश्वास था कि अगर में पकड़ा न गया तो दो साल के अन्दर-अन्दर अंगरेज़ों के भारतीय साम्राज्य का ध्वंस हो जायेगा। किसी फटे कागज़ के टुकड़े पर मेरा नाम पाते ही नॉर्टन साहब खूब खुश होते और इस परम मूल्यवान् प्रमाण को मजिस्ट्रेट के श्रीचरणों में सादर समर्पित करते। अफ़सोस है, कि मैं अवतार बन कर नहीं जनमा, नहीं तो मेरे प्रति उस समय की उनकी इतनी भक्ति और मेरे अनवरत ध्यान से नॉर्टन साहब निश्चित ही उसी समय मुक्ति पा जाते जिससे हमारी कारावास की अवधि और गवर्नमेंट का अर्थव्यय
दोनों की ही बचत होती। सेशंस अदालत द्वारा मुझे निर्दोष प्रमाणित किये जाने से नॉर्टन-रचित plot की सब श्री और गौरव नष्ट हो गया। बेरसिक बीचक्राफ़्ट ‘हैमलेट’ नाटक से हैमलेट को अलग करके बीसवीं सदी के श्रेष्ठ काव्य की हतश्री कर गये। समालोचक को यदि काव्य-परिवर्तन का अधिकार दे दिया जाये तो भला क्यों न होगी ऐसी दुर्दशा? नॉर्टन साहब को और एक दुःख था, कुछ गवाह भी ऐसे बेरसिक थे कि उन्होंने भी उनके रचित Plot के अनुसार गवाही देने से साफ़ इन्कार कर दिया। नॉर्टन साहब गुस्से से लाल-पीले हो जाते, सिंह-गर्जना से उनके प्राण कँपा उन्हें धमकाते। जैसे कवि को स्वरचित शब्द के अन्यथा प्रकाशन पर और सूत्रधार को अपने दिये गये निर्देशों के विरुद्ध अभिनेता की आवृत्ति, स्वर या अंगभंगिमा पर न्यायसंगत और अदमनीय क्रोध आता है, वैसा ही क्रोध आता था नॉर्टन साहब को। बैरिस्टर भुवन चटर्जी के साथ हुए संघर्ष का कारण यह सात्त्विक क्रोध ही था। चटर्जी महाशय के जितना रसायनभिज्ञ पुरुष तो कोई नहीं देखा। उन्हें रत्ती भर भी समय-असमय का ज्ञान नहीं था। नॉर्टन साहब जब संलग्न-असंलग्न का विचार न कर केवल कवित्व की ख़ातिर जिस-तिस प्रमाण को घुसेड़ते, तब चटर्जी महाशय खड़े हो असंलग्न या inadmissible (अमान्य) कह आपत्ति करते। वे समझ न सके कि ये साक्ष्य इसलिए नहीं पेश किये जा रहे कि ये संलग्न या क़ानूनसम्मत हैं वरन् इसलिए कि नॉर्टनकृत नाटक में शायद उपयोगी हों। इस असंगत व्यवहार से नॉर्टन ही क्यों, बर्ली साहब तक झुँझला उठते। एक बार बर्ली साहब ने चटर्जी महाशय को बड़े करुण स्वर में कहा था, “Mr. Chatterjee, we were getting on very nicely before you came,” आपके आने से पहले हम निर्विघ्न मुक़द्दमा चला रहे थे। सच ही तो है, नाटक की रचना के समय बात-बात पर आपत्ति उठाने से नाटक भी आगे नहीं बढ़ता और दर्शकों को भी मज़ा नहीं आता।
संदर्भ : कारावास की कहानी
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