भूल या सजा देने का कोई प्रश्न ही नहीं है-अगर हम लोगों को उनकी भूलों के लिए अपराधी ठहरायें या उन्हें सजा दें, और साधकों के साथ ऐसे व्यवहार करें मानों वे न्याय के कठघरे में खड़े हों, तो कोई साधना सम्भव नहीं। मेरी समझ में नहीं आता कि हमारे विरुद्ध तुम्हारी बात कैसे न्यायोचित है। साधकों के प्रति हमारा एकमात्र कर्तव्य यही है कि हम उन्हें उनकी आध्यात्मिक उपलब्धि की ओर ले जायें-हम परिवार के मुखिया की तरह नहीं बर्ताव कर सकते कि उनके घरेलू झगड़ों में पढ़ें, किसी एक की तरफदारी करें, किसी दूसरे के विरोध में अपनी धौंस जमायें! चाहे जितनी बार ‘क्ष’ डगमगाये, हमें उसका हाथ थामना होगा, उसे फिर से उठाना होगा और एक बार फिर उसे भगवान् के पथ पर बढ़ाना होगा।…
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-३२)
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