यह सम्पूर्ण प्रकृति इक मूक भाव से
केवल मात्र उसी को पुकारती है,
कि तपकते पीड़ाकूल जीवन के व्रण
उसके चरण-स्पर्श से भर-भर जाएं,
औ’ धूमिल अंतरात्मा पर अंकित
मुहर बंदियां टूट-फूट झर जाएं,
औ’ द्रव्यों के पीड़ित पड़े हृदय में
उसका आलोक प्रज्वलित हो जाये।
सावित्री पर्व ३ सर्ग २
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…