यह सम्पूर्ण प्रकृति इक मूक भाव से
केवल मात्र उसी को पुकारती है,
कि तपकते पीड़ाकूल जीवन के व्रण
उसके चरण-स्पर्श से भर-भर जाएं,
औ’ धूमिल अंतरात्मा पर अंकित
मुहर बंदियां टूट-फूट झर जाएं,
औ’ द्रव्यों के पीड़ित पड़े हृदय में
उसका आलोक प्रज्वलित हो जाये।
सावित्री पर्व ३ सर्ग २
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