सत्ता के पूर्ण आध्यात्मिक जीवन के लिये तैयार हों जाने से पहले सांसारिक जीवन का त्याग करना लाभदायी नही होता। ऐसा करने का अर्थ है अपनी सत्ता के विभिन्न अंगों में संघर्ष खड़ा कर देना और उसे इतनी तीव्रता तक उभार देना कि उसे सहन करने- के लिये प्रकृति तैयार न हों। तुम्हारे अन्दर के प्राणिक तत्वों को अंशत: अनुशासन तथा जीवन के अनुभव का सामना करना होगा, जब कि आध्यात्मिक लक्ष्य को अपनी दृष्टि के सामने रखना होगा तथा कर्मयोग की भावना के साथ धीरे-धीरे उसके द्वारा जीवन को परिचालित करने का प्रयास करना होगा ।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग-२)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…