मधुर मां,
हमें आपकी और श्रीअरविन्द की पुस्तकें कैसे पढ़नी चाहिये ताकि वे मन द्वारा समझे जाने की जगह हमारी चेतना में पैठ सकें?
मेरी पुस्तकों को पढ़ना कठिन नहीं है क्योंकि वे बहुत ही सरल भाषा में, लगभग बोल-चाल की भाषा में लिखी गयी हैं। उनसे सहायता लेने के लिए इतना काफी है कि उन्हें ध्यान और एकाग्रता के साथ, सद्भावना के आन्तरिक मनोभाव और जो कुछ सिखाया जा रहा है उसे ग्रहण करने और उसे जीने की इच्छा के साथ पढ़ा जाये। श्रीअरविन्द ने जो लिखा है उसे समझना ज्यादा कठिन है क्योंकि अभिव्यञ्जना बहुत बौद्धिक है और भाषा कहीं अधिक साहित्यिक और दार्शनिक। दिमाग को इसे सचमुच समझने के लिए काफी तैयारी की जरूरत होती है और आम तौर पर उस तैयारी में समय लगता है, जब तक कि व्यक्ति के अन्दर सहज अन्तर्भासात्मक क्षमता की प्रतिभा न हो।
बहरहाल, मैं हमेशा यह सलाह देती हूं कि एक समय में थोड़ा-सा पढ़ो, मन को जितना बन सके उतना निश्चल और स्थिर रखो, समझने की कोशिश न करो, लेकिन जहां तक सम्भव हो मन को नीरव-निश्चल रखने की कोशिश करो, जो तुम पढ़ रहे हो उसमें जो शक्ति है उसे अपने अन्दर गहराई में प्रवेश करने दो। स्थिरता और नीरवता में प्राप्त की हुई यह शक्ति मस्तिष्क को आलोकमय बनाने का कार्य करेगी और जरूरत हो तो उसमें समझने के लिए आवश्यक कोषाणुओं का निर्माण करेगी।
इस तरह, जब हम उसी चीज को कुछ महीनों के बाद दुबारा पढ़ते हैं तो देखते हैं कि वहां पर अभिव्यक्त किया गया विचार बहुत अधिक स्पष्ट और
निकटतर है, यहां तक कि कई बार तो बिलकुल परिचित मालूम होता है। ज्यादा अच्छा यह है कि नियमित रूप से और यदि सम्भव हो तो बंधे हुए समय पर, थोड़ा-थोड़ा पढ़ा जाये। यह मस्तिष्क की ग्रहणशीलता को ज्यादा सरल बना देता है।
संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खंड-१६)
–
0 Comments