सहनशीलता तुम्हारा आदर्श वाक्य हो : अपनी जीवनी शक्ति को अपनी प्राण – सत्ता को – यह सिखाओ कि शिकायतें किये बिना महान् उपलब्धि के लिए आवश्यक सब प्रकार की स्थितियों को सह ले । . . . सहनशीलता का सारतत्त्व यह है कि प्राण अपनी मनमानी पसन्द , नापसन्द को छोड़ कर , अत्यन्त कष्टकर स्थितियों के बीच भी धीरज और समबुद्धि बनाये रख सके । यदि कोई तुम्हारे साथ बुरी तरह व्यवहार करे या तुम असुविधा से बचाने वाली किसी चीज से वञ्चित रहो तो अपने – आपको घबराने न दो , हंसी – खुशी सह लो । कोई भी चीज तुम्हें जरा भी परेशान न करने पाये और जब कभी प्राण आडम्बरपूर्ण अतिशयोक्तियों के साथ अपनी छोटी – मोटी शिकायतों का दफ्तर खोले तो जरा रुक जाओ और यह सोचो कि दुनिया के बहत सारे लोगों की तुलना में तम कितने अधिक सुखी हो । क्षण – भर के लिए सोचो , पिछले युद्ध में जिन सैनिकों ने भाग लिया था उन पर क्या बीती थी । अगर तम्हें इस प्रकार की कठिनाइयां सहनी पड़ती तो तुम्हें पता चलता कि तुम्हारा असन्तोष कितना मूर्खतापूर्ण है । फिर भी मैं यह नहीं चाहती कि तुम्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़े – मैं सिर्फ इतना ही चाहती हैं कि तुम अपने जीवन की जरा – जरा – सी नगण्य कठिनाइयों को सहना सीखो ।
सहनशीलता के बिना कभी कोई बड़ा काम पूरा नहीं किया जा सकता । अगर तुम महापुरुषों की जीवनी पढ़ो तो तुम्हें पता चलेगा कि उन्होंने अपने – आपको प्राण की दुर्बलताओं के आगे कैसे चट्टान की तरह निर्मम और कठोर बना कर रखा था । आज भी , हमारी सभ्यता का असली अर्थ है प्राण के अन्दर सहनशीलता के द्वारा भौतिक पर प्रभुत्व पाना । खेल – कूद की भावना , साहस – कार्य और सब प्रकार की कठिनाइयों का बेधड़क सामना – इसी सहनशीलता के आदर्श के भाग हैं । स्वयं भौतिक विज्ञान में , प्रगति सफलता से पहले आने वाली अनेक कठिनाइयों , परीक्षाओं और संकटों पर निर्भर करती है । निश्चय ही हमने आश्रम में जिस महत्त्वपूर्ण कार्य को हाथ में लिया है , उसमें सहनशीलता की कम आवश्यकता नहीं है । तुम्हें करना यह चाहिये – जैसे ही तुम्हारा प्राण विरोध या प्रतिवाद करे उसे अच्छी तरह से धौल जमाओ ; जहां तक भौतिक का सम्बन्ध है , सावधान रहने की और कुछ लिहाज करने की जरूरत है , लेकिन प्राण के साथ तो एक ही उपाय है , अच्छी तरह से लात जमाओ । प्राण जैसे ही शिकायत करना शुरू करे कि उसे लतियाओ , क्योंकि उस तुच्छ चेतना में से निकलने का और कोई उपाय नहीं है जो ‘ सत्य ‘ और ‘ प्रकाश ‘ की मांग करने की जगह , सुख – साधनों और सामाजिक सुविधाओं को ही महत्त्व देती रहती है ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…