यदि तुम सत्य का यन्त्र बनना चाहो तो तुम्हें सदा सच ही बोलना होगा न कि झूठ। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें प्रत्येक व्यक्ति को
प्रत्येक वस्तु बतानी होगी। मौन रह कर या बोलने से इन्कार करके सत्य को छिपाने की अनुमति दी जा सकती है, क्योंकि जो लोग अभी सत्य के लिए तैयार नहीं हैं या उसके विरोधी हैं उन्हें उसके सम्बन्ध में गलतफहमी हो सकती है या वे उसका दुरुपयोग कर सकते हैं-इसे वे विकृत या निरा असत्य बनाने के लिए एक आरम्भ-बिन्दु भी बना सकते हैं। लेकिन असत्य बोलना दूसरी बात है। हंसी-मजाक में भी असत्य बोलने से बचना चाहिये क्योंकि इसमें चेतना को नीचा गिराने की प्रवृत्ति होती है। जहां तक अन्तिम बात का प्रश्न है, यह भी फिर उच्चतम दृष्टि-बिन्दु से ही कही गयी है – व्यक्ति मन में जिसे सत्य मानता है वह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि मन का विचार गलत और अपर्याप्त हो सकता है-सच्ची चेतना में सच्चे ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…