इस छोटे-से अभ्यास को करने का प्रयत्न करो। दिन के आरम्भ में कहो, “जो कुछ मुझे कहना होगा उस पर विचार किये बिना मैं कुछ नहीं बोलूंगा।” तुम्हारा यह विश्वास है, है न, कि तुम जो कुछ भी कहते हो सोच कर कहते हो! किन्तु यह बिलकुल ही सही नहीं है, तुम देखोगे कि कितनी ही बार जो शब्द तुम बोलना नहीं चाहते वही फूट पड़ने को तैयार है और उसे बाहर निकलने से रोकने के लिए तुम्हें सचेतन प्रयत्न करने के लिए विवश होना पड़ता है।
मैंने ऐसे लोगों को देखा है जो झूठ न बोलने के लिए बहुत ही सावधान रहते थे; किन्तु जब वे किसी समुदाय में होते थे, तो सत्य न बोल कर सहज भाव से झूठ बोलने लगते थे। वे ऐसा करना नहीं चाहते थे पर यह “यूं ही” हो जाता था। क्यों?-क्योंकि वे झूठ बोलने वालों की संगति में रहते थे; उनके साथ झूठ का वातावरण होता था और बिलकुल सहज भाव से वे इस रोग से आक्रान्त हो जाते थे। इसी प्रकार थोड़ा-थोड़ा करके, धीरे-धीरे, निरन्तर प्रयास करके, सबसे पहले बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ मनुष्य सचेतन होता है, अपने-आपको जानना और बाद में अपने-आपको वश में करना सीखता है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५०-१९५१
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