श्रीमां की प्रार्थना


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

हे प्रभो, मैं तेरे आगे सदा एक कोरे पृष्ठ की तरह रहना चाहूंगी ताकि मेरे अन्दर तेरी इच्छा किसी कठिनाई या किसी भी मिश्रण के बिना लिखी जा सके।

कभी-कभी विचार से पिछली अनुभूतियों की स्मृति तक बुहार फेंकनी जरूरी होती है ताकि वे सतत नव निर्माण के कार्य में बाधक न हों। केवल यही एक चीज है जो सापेक्षताओं के जगत् में तेरी पूर्ण अभिव्यक्ति को आने की अनुमति देती है।

बहुधा आदमी उस चीज से चिपटा रहता है जो थी, उसे बहुमूल्य अनुभूति के परिणाम को खो देने का, एक विस्तृत और उच्च चेतना के छूट जाने का, निचली अवस्था में जा गिरने का भय रहता है। लेकिन उसे किस बात का खटका जो तेरा है, क्या वह तेरे अंकित किये हुए पथ पर, वह चाहे कोई भी पथ क्यों न हो, चाहे उसकी सीमित समझ के लिए एकदम अबोधगम्य क्यों न हो, क्या वह उस पर आनन्दमयी
आत्मा और प्रबुद्ध भ्रू के साथ नहीं चल सकता?

हे प्रभो, विचार के पुराने ढांचों को तोड़ दे, प्राचीन अनुभूतियों को लुप्त कर दे और अगर तू जरूरी समझे तो सचेतन समन्वय को भी विघटित कर दे ताकि तेरा कार्य अधिकाधिक अच्छी तरह पूरा हो, धरती पर तेरी सेवा पूर्ण हो सके।

संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान 


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