श्रद्धा-विश्वास अनुभव पर नहीं निर्भर करता; वह तो एक ऐसी चीज है जो अनुभव के पहले से विद्यमान रहती है। जब कोई योग आरम्भ करता है तो वह साधारणतया अनुभव के बल पर नहीं आरम्भ करता बल्कि श्रद्धा-विश्वास के बल पर करता है। यह बात केवल योग और आध्यात्मिक जीवन के लिये ही नहीं वरन् साधारण जीवन के लिये भी ऐसी ही है। सभी कर्मशील व्यक्ति, ज्ञान के आविष्कर्त्ता, उद्घाटन और स्त्रष्टा श्रद्धा – विश्वास से ही आरम्भ करते हैं और, जब तक प्रमाण नहीं मिल जाता या कार्य पूरा नहीं हो आता तब तक वे निराशा, असफलता, प्रमाणाभाव, अस्वीकृति के बावजूद भी अपना प्रयास जारी रखते है, क्योंकि उनमें एक चीज़ ऐसी होती है, जो उनसे कहती है कि यही सत्य है, यही वह चीज है जिसका अनुसरण करना होगा और जिसे पूरा करना होगा ।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र ( भाग – २)
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…